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रेतो॒ मूत्रं॒ विज॑हाति॒ योनिं॑ प्रवि॒शदि॑न्द्रि॒यम्। गर्भो ज॒रायु॒णावृ॑त॒ऽउल्बं॑ जहाति॒ जन्म॑ना। ऋ॒तेन॑ स॒त्यमि॑न्द्रि॒यं वि॒पान॑ꣳ शु॒क्रमन्ध॑स॒ऽइन्द्र॑स्येन्द्रि॒यमि॒दं पयो॒ऽमृतं॒ मधु॑ ॥७६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

रेतः॑। मूत्र॑म्। वि। ज॒हा॒ति॒। योनि॑म्। प्र॒वि॒शदिति॑ प्रऽवि॒शत्। इ॒न्द्रि॒यम्। गर्भः॑। ज॒रायु॑णा। आवृ॑त॒ इत्यावृ॑तः। उल्व॑म्। ज॒हा॒ति॒। जन्म॑ना। ऋ॒तेन॑। स॒त्यम्। इ॒न्द्रि॒यम्। वि॒पान॒मिति॑ वि॒ऽपान॑म्। शु॒क्रम्। अन्ध॑सः। इन्द्र॑स्य। इ॒न्द्रि॒यम्। इ॒दम्। पयः॑। अ॒मृत॑म्। मधु॑ ॥७६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:19» मन्त्र:76


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

शरीर से वीर्य्य कैसे उत्पन्न होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रियम्) पुरुष का लिङ्ग इन्द्रिय (योनिम्) स्त्री की योनि में (प्रविशत्) प्रवेश करता हुआ (रेतः) वीर्य को (वि, जहाति) विशेष कर छोड़ता है, इससे अलग (मूत्रम्) प्रस्राव को छोड़ता है, वह वीर्य (जरायुणा) जरायु से (आवृतः) ढका हुआ (गर्भः) गर्भरूप होकर जन्मता है, (जन्मना) जन्म से (उल्वम्) आवरण को (जहाति) छोड़ता है, वह (ऋतेन) बाहर के वायु से (अन्धसः) आवरण को निवृत्त करनेहारे (विपानम्) विविध पान के साधन (शुक्रम्) पवित्र (सत्यम्) वर्त्तमान में उत्तम (इन्द्रस्य) जीव के सम्बन्धी (इन्द्रियम्) धन को और (इदम्) इस (पयः) रस के तुल्य (अमृतम्) नाशरहित (मधु) प्रत्यक्षादि ज्ञान के साधन (इन्द्रियम्) चक्षुरादि इन्द्रिय को प्राप्त होता है ॥७६ ॥
भावार्थभाषाः - प्राणी जो कुछ खाता-पीता है, परम्परा से वीर्य होकर शरीर का कारण होता है। पुरुष का लिङ्ग इन्द्रिय स्त्री के संयोग से वीर्य छोड़ता और इससे अलग मूत्र को छोड़ता है, इससे जाना जाता है कि शरीर में मूत्र के स्थान से पृथक् स्थान में वीर्य रहता है, वह वीर्य्य जिस कारण सब अङ्गों की आकृति उसमें रहती है, इसी से जिसके शरीर से वीर्य उत्पन्न होता है, उसी की आकृतिवाला सन्तान होता है ॥७६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

शरीरात् कथं वीर्य्यमुत्पद्यत इत्याह ॥

अन्वय:

(रेतः) वीर्यम् (मूत्रम्) प्रस्रावः (वि) (जहाति) (योनिम्) जन्मस्थानम् (प्रविशत्) प्रवेशं कुर्वत् सत् (इन्द्रियम्) उपस्थः पुरुषलिङ्गम् (गर्भः) यो गृह्यते सः (जरायुणा) बहिराच्छादनेन (आवृतः) (उल्वम्) आवरणम् (जहाति) त्यजति (जन्मना) प्रादुर्भावेन (ऋतेन) बहिस्थेन वायुना सह (सत्यम्) वर्त्तमाने साधु (इन्द्रियम्) जिह्वादिकम् (विपानम्) विविधं पानं येन तत् (शुक्रम्) पवित्रम् (अन्धसः) आवरणस्य (इन्द्रस्य) जीवस्य (इन्द्रियम्) धनम् (इदम्) (पयः) रसवत् (अमृतम्) नाशरहितम् (मधु) येन मन्यते तत् ॥७६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - इन्द्रियं योनिं प्रविशत् सद् रेतो विजहाति। अतोऽन्यत्र मूत्रं विजहाति तज्जरायुणावृतो गर्भो जायते जन्मनोल्वं जहाति, स ऋतेनान्धसो निवर्तकं विपानं शुक्रं सत्यमिन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मध्विन्द्रियं चैति ॥७६ ॥
भावार्थभाषाः - प्राणिना यत् किञ्चिद् भुज्यते पीयते तत् परम्परया शुक्रं भूत्वा शरीरकारणं जायते, पुरुषस्योपस्थेन्द्रियं स्त्रीसंयोगेन शुक्रं मुञ्चति। अतोऽन्यत्र मूत्रं त्यजति, तेन ज्ञायते शरीरे मूत्रस्थानादन्यत्र रेतस्तिष्ठति तद्यस्मात् सर्वेभ्योऽङ्गेभ्य उत्पद्यते, तस्मात् सर्वाङ्गाकृतिर्वर्त्तते। अत एव यस्य शरीराद् वीर्यमुत्पद्यते, तदाकृतिरेव सन्तानो जायते ॥७६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्राणी जे खातो-पितो त्याचे (शेवटी) वीर्य बनते व वीर्य हे शरीराचे कारण असते. पुरुषाचे लिंग स्रीच्या योनीत वीर्य सोडते. मूत्रस्राव त्यापासून वेगळा असतो. यावरून हे कळून येते की, शरीरात मूत्रस्थानापेक्षा वेगळे असे वीर्याचे स्थान असते. शरीराच्या सर्व अवयवांतून वीर्य उत्पन्न होते. त्यामुळे सर्व अवयवांची आकृती त्यात असते. त्यामुळे ज्या शरीरापासून वीर्य उपत्पन्न होते त्याच आकृतीचे संतान उत्पन्न होते.